प्रस्तावना
दोस्तों, दुनिया में पहचान शब्द की बड़ी कीमत होती हैं, और ये सिर्फ़ दो तरह से मिलती हैं, एक बाप दादा से, दूसरी खुद को कर्मों से। हम क्या हैं? हम क्या थे? हम कहाँ से आये हैं? हम कैसे आये थे? हम यहां क्यों आये थे? हमारा सामाजिक ताना बाना क्यों बदल रहा हैं? कोई हमें बदलने की कोशिश तो नहीं कर रहा हैं? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जो आज की बदलती जीवन शैली में (रोटी कपड़ा और मकान) लुप्त होते जा रहे हैं, पर क्या अपने पुरखों को भुलाना आधुनिक जीवन की एकमात्र शर्त हैं? अगर ऐसा होना जरुरी भी हो तो हम व्यक्तिगत रूप से इसके खिलाफ है।
कुछ इसी तरह के सवाल मुझे और मेरे कुछ ख़ास दोस्तों को कई सालो से दुखी करते आ रहे थे | हम सभी साथी आज के उत्तर प्रदेश पश्चिम के "जिला मेरठ, हापुड़, मुरादाबाद, अमरोहा और संभल" से तालुक रखने वाले थे, बिरादरी से पंजाबी जट, धार्मिक मत हमारे सिख और हिन्दू दोनों का मिश्रण थे | आप कह सकते है कि हम दुनिया में अपने किस्म के अकेले थे | हमारी सबसे बड़ी दिक्कत ये थी कि हिन्दू देशवाली जाटो का रहन सहन, रीतिरिवाज, धार्मिक मान्यताए, हमसे बिलकुल जुदा है, पर उत्तर प्रदेश के सामाजिक ताने बाने में, दूसरी तमाम बिरादरियों की निगाह में हम एक जैसे थे, ये तथ्य धरातल पर कहीं से भी सच नहीं था| हमारे रिश्तेदारी में जब भी शादी होती तो सबकी एक प्राथमिक राय जरूर होती कि "लोकल हेले जाटों में शादी नहीं करनी", उनसे हमारे विचार नहीं मिलते, हालांकि 1-2 % लोग शादिया फिर भी करने लगे थे पर ये चलन सन 2000 के बाद शुरू हुआ | इस हलके के जट्टो ने सन 2000 के बाद अपनी माँ बोली पंजाबी को भी छोड़ना शुरू कर दिया था |
ऐसे में जब हम अपने पढाई के आखरी चरणों में थे, तब हमने भीतरी अंतर्मन में अपनी जड़ो की असली सच्चाई जानने की आग जोर से धधकने लगी थी , मन बेचैन होने लगता था | दूसरी तरफ हिन्दू जाटो के पास अच्छे स्तर के सामाजिक संगठन भी थे, जिनके आक्रामक प्रचार प्रसार के आगे पंजाबी जट्ट सभ्यता कमजोर पड़ने लगी, देशवाली जाटों के सभी संगठन अपने बड़े पदों पर दारा सिंह, धर्मेंदर देओल, या कप्तान अमरिंदर सिंह जैसे कद्दावर लोगो को विराजमान करते रहे पर अंदरखाने भला सिर्फ हेले जाटों का करते रहे | देशवाली जाटो को पंजाबी जट्ट की शोहरत और रुतबे का फायदा उठाना था, पंजाबी जट्टो की भलाई का कोई इरादा नहीं था | ये बात साबित करने के लिए इतना ही कहना चाहूंगा कि आज तक पंजाबी जट्टो के इलाके में एक भी शिक्षा संस्थान नहीं खोला गया है, अगर एक भी संस्थान खोला गया हो तो बताना जरूर | जबकि हरयाणा, राजस्थान, दिल्ली, और मुज़फ्फरनगर बागपत जैसे इलाको में ऐसे संस्थानों कि चलते हुए २० साल से भी ऊपर हो चुके है| ऊपर से दारा सिंह और धर्मेंदर जैसे कामयाब, पर क़ौम की समझ के मामलो में जीरो लोग बाकि जनता को भी जाने अनजाने बेबकूफ बनने के लिए प्रेरित कर आ रहे है |
जट्ट इतिहास जरूरी क्यों है?
अपनी जड़ों तक पहुंचने को सिर्फ दो ही रास्ते होते हैं पहला परिवार(बड़े बुजुर्गो) के द्वारा दिया गया ज्ञान या दूसरा इतिहास। इतिहास, जैसा कीमती शब्द दुनिया में कोई नही। ये हमें हमारी जड़ो से जुड़ने के लिए सबसे जरूरी हथियार जैसा होता है। दुनिया में किसी भी आदमी की मानसिकता को बदलने के तौर पर की इतिहास का भरपूर को उपयोग किया जाता है, खासकर जब आपका इतिहास थोड़ी गहराई में छुपा है। लेकिन वह लोग जिनका अपना कोई खास इतिहास नहीं होता वह कई बार दूसरों का इतिहास चुराने की कोशिश करते हैं। इस चोरी में उनकी कामयाबी के स्तर का तो मुझे पता नहीं पर अगर कोई कौम अपने इतिहास की जानकारी किसी अन्य स्रोतों से लेना शुरू कर दे (परिवार और सग्रहित इतिहास को छोड़कर), ऐसे में वह अपने इतिहास की जड़ों में खुद ही आत्मघाती चोट पहुंचाने लगते हैं, तब यह मार दोहरी हो जाती हैं और अगर यह सिलसिला एक लंबे समय तक चले तो जाहिर है वह अपनी जड़ों से पूरी तरह कट भी जायेंगे, और उनके स्वर्णिम इतिहास पर कोई समान लगने वाली छदम जाति कब्जा कर बैठेगी। किसी और कौम के बारे में तो मैं यह बात नहीं कह सकता पर पिछले पंद्रह बीस सालों में पंजाबी जट इस बीमारी से ग्रसित हो गए हैं। यह बीमारी मुख्य भूमि पंजाब से लेकर यूपी हरियाणा राजस्थान के पछादे जट्ट या देहेओ या ढेह या डेह (Dehao) जट लोगों में पूरी तरह से अपने पैर पसार चुकी है। (पछा का मतलब हिंदी में पश्चिम होता है, दे का मतलब "संबंध के")
उत्तर प्रदेश के पंजाबी जट्ट जो कभी "बाबा बघेल सिंह" जैसे सूरमा के समय सामाजिक ताने बाने में सबसे ऊपर विराजमान थे, आज अपने इतिहास को नजर अंदाज़ करने के चलते अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ने लगे | वो अपने हीरो को छोड़कर दूसरो के बताये हीरो को अपना कहने लगे, वो महाराजा सूरजमल की जय जय कर करने लगे, जबकि बाबा बघेल सिंह के समय ये पंजाबी जट्ट पूरे ऊपरी और निचले दोआब से लेकर रूहेलखंड तक हिन्दू जाटों समेत आम जान मानस से टैक्स वसूला करते थे, सिख फौजे यमुना पार करके हिन्दू जाटों और राजपूतो के गॉवो को लूटकर चली जाती थी | आज उसी फ़ौज के बच्चे दूसरो के बाप दादाओ की जय जैकार लगा रहे है| वो भी सिर्फ इसीलिए कि वो बदलते सामाजिक परिवेश में अपने इतिहास को सहेज कर न रख सके | दिल्ली में गुरुद्वारा रकाबगंज, शीशगंज साहिब, मजनू का टिल्ला ये सभी गुरुद्वारों की उसारी आज उत्तर प्रदेश में स्थित पछादे जट्ट की बदौलत ही हुई है, और बिडंबना देखिये कि दिल्ली की गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी हर साल दिल्ली फ़तेह दिवस का आयोजन करती है और उत्तर प्रदेश के पंजाबी जट्ट को ऐसे नजरअंदाज करती है जैसे ये सब इनका किया धरा है |
ऐसी ही बेचैनियों के बीच हम सब लोग अपनी अपनी जिंदगी में इन सवालो के जबाब ढूंढ रहे थे | साल दर साल चलने वाली ये इंटरनेट खोज एक दिन हम सबको एक मोड़ पर लेकर खड़ा कर देती है | हम सबकी मंजिल एक थी, रास्ते अलग अलग थे | फिर दोबारा काफी सालो की गुफ्तगू के बाद, हम सबने साथ चलने का फैसला किया | हमने फैसला किया कि पहचान की जिस लड़ाई में हमने अपना इतना वक़्त जाया किया है| कोई और हमारा बिरादरी भाई अपना समय बर्बाद न करे | हमें अपना इतिहास पैदा नहीं करना था, हमें किसी दूसरे का इतिहास चुराना नहीं था, हमें किसी की नक़ल नहीं करनी थी| हमें तो बस अपनी जड़े ढूंढ़नी थी | सबके एक साथ चलने और साझे प्रयासों ने हमें अपनी जड़ो तक पहुंचाया | अब ये हमारी जिम्मेदारी बनती है कि जो भी हमने खोजा है, पाया है ज्यू का त्यू हम अपने पंजाबी जट्ट भाइयो के सामने सब व्यवस्थित और अपरिवर्तित रूप में रख दे | इस ब्लॉग का मुख्य उद्देश्य सिर्फ पंजाबी जट्ट इतिहास के छुपे पन्नो को सारी क़ौम के सामने रखना है, जिसका मुख्य केंद्र पछादे या देहेओ जट्ट होंगे |
जब हम अपनी पहचान खोजने में लगे हुए थे, तब हमें ये जानकर बहुत अधिक अचरज हुआ कि इस परेशानी से सिर्फ हम ही पीड़ित नहीं है| मध्यप्रदेश के मालवा क्षेत्र के पंजाबी जट्ट लोग, गुजरात के पंजाबी जट्ट लोग, मथुरा भरतपुर के आसपास के पछादे जट्ट लोग, उत्तर प्रदेश के पश्चिम-पूर्वी क्षेत्र के पंजाबी जट्ट, जम्मू के जट्ट लोग,जम्मू से ऊपर के जट्ट लोग, हद तो तब और भी हो गयी जब पंजाबी हरयाणवी सभ्यता के बॉर्डर पर स्थित पंजाबी जट्ट भी इस सभी इसी परेशानी से घिरे हुए है, जबकि पंजाब से इनका सामाजिक ताना-बाना आज भी सांझा है | हाँ इस सभी वर्गों में UP के जट्ट जनसंख्या में सबसे अधिक है| देश के अलग अलग हिस्सों में बसे होने के कारण, कई क्षेत्रय समूहों की धार्मिक मान्यताये आज भी हु-बहु बाबा नानक या 500-600 साल उनसे भी पुराने समय से चली आ रही है, बस लोग बाग़ उसको उस खास नजरिये से देख नहीं पाए| इनमे से कई मान्यताये तो ऐसी भी है जो की पंजाब के एक छोटे से हिस्से में ही सीमित रह गयी है| पंजाबी जट्टो की इन् मान्यताओं को लोकल हिन्दू जाट कम से कम पिछले 2000 सालो में तो सांझा कर नहीं पाए | इनका विवरण भी अगले अध्यायों में दिया जायेगा|
1920 की अकाली लहर के बाद सिख धरम के एकीकृत धरम रक्षा कार्यक्रम की शुरुआत हुई, जिसके बाद पंजाब की जट्ट सिख बिरादरी का धरम के हर हिस्से पर राज कायम होने का रास्ता साफ़ होता चला गया, सिख धरम की तरफ आने वाली दूसरी धर्मिक मान्यताओं का रास्ता बंद किया जाना शुरू हो गया था, जैसे उदासी परंपरा, नानक शाही परंपरा, देहरादून से संभंधित रामराये परंपरा जैसे न जाने अन्य परम्पराये| उत्तर प्रदेश में पलायन किसी एक चरण में नहीं हुआ है, ये राणा सांगा द्वारा तत्कालीन पंजाब के राजाओ से सैन्य मदद से शुरू होकर 1947 तक के बटवारे के बाद आज भी दुसरे रूप में चालू है | पर इसमें भी कोई संदेह नहीं की सबसे बड़ा पलायन बाबा बघेल सिंह में समय आयोजित हुआ था, इन घटनाओ का भी विस्तारपूर्वक विवरण दिया जायेगा |
भारत का जातिय ढांचा इतना जटिल है कि किसी भी जाति के मूल स्थान से सौ दो सौ किलोमीटर की दूरी पर दुसरी नीची कही जाने वाली जातिया, दूसरी किसी भी गौरवान्वित जाति का इतिहास चुरा कर अपने सपने को गर्व के झूठे पंख लगा लिया करती हैं। आमतौर पर मूल जाति इसकी कम परवाह करती हैं, क्योकि जाति का विकृत ही सही, प्रचार प्रसार तो हो ही रहा है। अब जट समाज में कबिलाई रहन सहन तो रहा नहीं, ना जंगी मुठभेड़ों का जमाना रहा, परिवर्तन तो संसार का नियम है, पर अपने पिछले इतिहास को सहेजकर रखना आपकी खुद की जिम्मेदारी है, आप किसी दूसरी जाति से ये उम्मीद कभी नहीं कर सकते। अपने मरे बिना स्वर्ग नहीं मिला करता इसीलिये हमने अपना अध्ययन खुद किया है, बजाय दूसरों के पीछे चलने के।
जो कौमें अपने आप पर भरोसा नहीं रखती वो दूसरों की गुलामी करना शुरू कर देती हैं, उदाहरण सबसे ताजा उदाहरण यूपी के मुरादाबाद मंडल खागी या खडगवंसी समाज का हैं, खागी समाज का ही एक हिस्सा खुद को चौहान लिखने लगा, पिछले 60 सालों में ये चौहान टाईटल इस हिस्से की पक्की पहचान बनने लगा, वक्त के साथ ये लोग अपने ही खागी समाज का तिरस्कार करने लगा। ये लोग क्षत्रिय महासभा बनाने लगे, जबकि असली राजपूत इनमें आज भी शादी ब्याह नही करते। ये दुनिया के ऐसे चौहान है जो चौहानो में ही शादी ब्याह करते हैं।
हम इतिहास और पहचान की लड़ाई में पंजाब की संगीत इंडस्ट्री का भी बहुत आभार प्रकट करते है, जिसने पंजाबियत को आग को पंजाबी जट्टो के सीने में सुलगाये रखा | जबकि दूसरी तरफ धरम की ठेकेदार SGPC पंजाब क्षेत्र के 10-12 गिने चुने गुरुद्वारों की देखभाल के अलावा कभी अतिरिक्त उपाय नहीं करती, जबकि ना उसके पास संसाधनों की कमी है न ही योजनाओ की !
हमने एक समय ऐसा भी देखा है जब अमरोहा के तत्कालीन सांसद चौधरी चंदरपाल सिंह के पास SGPC पंजाब ने सिख इंस्टीटूशन को अमरोहा में स्थापित करने की पहल की तो चौधरी चंदरपाल सिंह (जो मूल रूप से पपसरा गांव का पंजाबी जट्ट था) पर आर्यसमाज के प्रभाव में आकर सरेआम सिखों का विरोध करने लगा, वो अपने चुनावी मंचो से आवाज लगाने लगा कि सिखों ने यहां दखल बढ़ाया तो अमरोहा का जट्ट भी पंजाब की तरह आतकवाद कि आग में झुलसेगा, हमें पता नहीं कि वो मौत से डरता था या उसके पीछे कोई राजनितिक कारण थे, पर पंजाब के सिखों कि तरफ से उठाया गया हाथ उसने झंझकोर दिया था, जिसका खामियाज़ा आज जट्ट बच्चे, जनेऊ और जय श्री राम के नारे लगाकर उठा रहे है, उन्हें सूरजमल का तो पता है पर नलवे का नहीं | बाद में इसी चंदरपाल सिंह में चोटीपुरा गांव में वैदिक कन्या महाविधालय खुलवा दिया, जिसमे जट्टी बच्चीया पंजाबी न सीखकर संस्कृत सिख रही है और पंजाबी जट्ट की सीथियन शाखा का अनजाने में आर्य सभ्यता में मेल करा रही है, ऐसी बच्चिया जो हिन्दू कर्मकांडो में फस रही है, वो सिख सभ्यता का क्या भला कर पाएंगी? हमें इसी माहौल को बदलना है, अपनी पंजाबियत की रक्षा करने का वक़्त आ गया है, बिना सभ्याचार के हम सब बेकार हो जायेंगे |
जट को किसी धार्मिक पहचान बांधा जाये या नही, जैसे जट सिक्ख या मुस्लिम जट या हिन्दू जट?
ऩही, मैंने सिर्फ़ पंजाबी जट शब्द का इस्तेमाल इसलिए ही किया है। क्योंकि किस जाति के विकास के क्रम में किसी धर्म विशेष का इस्तेमाल करना बहुत ही गलत होगा। इतिहास के अध्यन में किसी भी धार्मिक पक्ष को मान्यता नहीं दी गयी है, हाँ भविष्य को देखते हुए भिन्न भिन्न स्तर पर सलाह जरूर दी जाएगी | यह जाति आज मुसलमान सिख और हिंदू तीनों में पाई जाती है ऐसी स्थिति में जट को सिक्ख, मुस्लिम या हिन्दू किसी एक दायरे में सीमित करने से पूरे जट परिवेश को नजरअंदाज होने का खतरा है। ऐसे में पंजाबी सभ्याचार की बात करना ज्यादा उचित होगा। इसमें सभी धर्म आ जायेंगे। पंजाबी सूबे का राज भारत के विशेष हिस्से में भारत की आजादी तक कायम रहा है। इस हिस्से ने सबसे ज्यादा बाहरी आक्रमण कारी शक्तियों से सीधा लोहा लिया है। आजादी के बाद इस हिस्से के बटवारे ने पंजाबी राजनीति को ना भर पाने वाले जख्म दिये है, मुस्लिम जट का सिक्ख हिन्दू जट से पूरा अलगाव हो गया, मुस्लिम जट का तेजी से सरकारी इस्लामीकरण होने लगा, आजादी के बाद से आज तक का अध्ययन हमारी पहुच से अभी बाहर है। भारतीय हिस्से के अध्ययन के बाद उनके अध्ययन पर ध्यान दिया जायेगा। भारतीय हिस्से की बात की जाये तो पंजाबी सभ्याचार के दायरे से बाहर आने को लेकर हरियाणा और हिमाचल में जोरदार मांग उठने लगी,भारत सरकार के द्वारा पंजाब में अति सक्रियता के विरोध में पंजाबी हिंदी आमने सामने आ गये, हिन्दी तबका भी पंजाबी प्रभाव ने निकलने को मजल रहा था, मांगे मानी गयी और पंजाबी सूबे का एक और बटवारा हो गया।
भारत के पंजाबी जट सभ्याचार का ढ़ाचा और आज जट इतिहास अध्ययन की चुनौतिया
भारत में पंजाबी जट्ट की भौगोलिक उपस्थिति की अगर बात की जाए तो मुख्य भूमि पंजाब जम्मू कश्मीर के कुछ हिस्से हिमाचल के कुछ हिस्से हरियाणा में पुराने पटियाला घराने का कैथल से लेकर यमुनानगर तक का हिस्सा और अंबाला यमुनानगर से लेकर करनाल तक का हिस्सा पंजाबी जट्ट जनसंख्या का लगभग केंद्र है इसके अलावा हरियाणा के बल्लभगढ़ में पांच बड़े गांव भी शामिल हैं, पश्चिम उत्तर प्रदेश के ऊपरी दोआब में लगभग डेढ़ सौ गांव में पंजाबी जट्ट की अच्छी खासी आबादी है और रोहिलखंड में लगभग तीन सौ गांव जिनमें ज्यादातर अमरोहा,संभल,मुरादाबाद जिले के अंतर्गत आते हैं पंजाबी जट आबादी का मुख्य केंद्र है इन आबादियों के अलावा भारत पाकिस्तान बंटवारे के बाद पाकिस्तान से आए हुए जट्ट जमीदारों को यूपी में जिला मुजफ्फरनगर, बिजनौर से लेकर पीलीभीत लखीमपुर खीरी तक तराई के मैदानों को खेतिहर जमीन में तब्दील करने की जिम्मेदारी दी गई जो कि उन्होंने बखूबी निभाई। पूरे भारत में पंजाबी जटों के सबसे बड़े खेती के फॉर्म इसी हिस्से में पाए जाते हैं इसके अलावा भी लखीमपुर खीरी से गोरखपुर तक आजादी के बाद कुछ लोगों ने पंजाब की जमीन देखकर नए-नए खेती के फॉर्म स्थापित किए हैं अगर सिर्फ खेती की जोत की जमीन की बात की जाए तो लगभग जितनी जमीन पंजाब की मुख्य भूमि में किसान जोत रहे हैं उससे डेढ़ गुना ज्यादा जमीन यूपी में पंजाबी जाट जमीदार जोत रहे हैं। यह भारत के सबसे विकसित और आर्थिक स्थिति में सबसे ऊँचे किसान हैं।
इतिहास को सहेज के रखने की बात की जाये तो यूपी के पछादे जट इस क्षेत्र में सभ्याचार के मामले में सबसे अलग थलग पड़े हुये है। इसका दो मुख्य कारण है पहला कि पंजाबी जट का पंजाब से यूपी में विस्थापन राणा सांगा द्वारा बाबर के खिलाफ फौजी सहयोग से लेकर अकाली लहर तक एक अलग स्तर पर चला, जो लोग अकाली लहर से पहलों पहल नीचले राज्यों में स्थापित हुये है, उनके धार्मिक विकास अलग शाखा है जबकि अकाली लहर के बाद आये लोगों का धार्मिक विकास अलग स्तर और शाखा का हैं। अब जब अकाली लहर के बाद धार्मिक स्तरों को जोड़ने का काम चला तो पता लगा कि यूपी के पंजाबी जट आज भी सिक्खों की सबसे पुरानी या प्रारंभिक प्रथाओं का जाने अनजाने में चलन कर रहे हैं, आज तक यूपी के पछादे जट हिन्दू और सिक्ख दोनों धर्मों का मिला जुला पालन कर रहे हैं, सरकारी कागजों में लगभग 95% लोगों ने अपने आप को हिन्दू घोषित कर रक्खा है, अधिक संख्या में हिन्दू होने का एक कारण स्कूलों से लेकर सरकारी कार्यालयों तक सरकारी मशीनरी का जबरन हिन्दू लिखने पर जोर देना भी हैं, यूपी में सिक्ख उसी बंदे के लिये लिखा जाता है जो पूरी तरह से सिक्ख ककार धारण किये हुये हो। अगर बाप ने पग दाढ़ी नही रखी हैं तो उसके बच्चे को सरकारी स्तर पर हिन्दू घोषित कर दिया जाता है। ऐसे अनगिनत केस है जिनमें एक घर में सरकारी स्तर पर बड़ा भाई सिक्ख और छोटा भाई हिन्दू लिखता है। बाकी लगभग 5% लोग आधिकारिक रूप से सिक्ख धर्म में है जबकि दूसरी तरफ पंजाब के जट धर्म सुधार के नाम पर इनमें से कई प्रथाओ की बलि दे चुके हैं, और कुछ हिन्दूवाद की छवि से निकलने को आतुर हैं, कुछ ने हिन्दू धर्म से पूरी तरह अपने आप को अलग कर लिया है और वो लोग अपने पूर्वजों की पुरानी परम्पराओ को धर्मसुधार के नाम पर बलि चढ़ा चुके हैं, धर्म सुधार कितना हुआ है? इसका असर कितना व्यापक है? क्या ये सिर्फ़ एक जाति विशेष के हित साधने का हथियार तो नहीं बन कर रह गया है? क्या धर्म सुधार में धार्मिक ठेकेदारों ने अपनी जिम्मेदारी निभाई? इसके बारे में भी हम विस्तार से चर्चा करेंगे।
पंजाब के मूल इतिहास के बिखरते दायरे से बढ़ती दूरी की बात अगर की जाए तो हिंदू पंजाबी जट्ट आज इस क्रम में सबसे आगे हैं, और यह अलगाव हो पिछले 10:12 सालों में कुछ ज्यादा ही तेज हुआ है और इसका मुख्य कारण अपने इतिहास की कम जानकारी या नजरअंदाज करना है।
सटिक जट इतिहास कैसे सामने रखा जायेगा? स्रोत क्या है?
अब हम जट इतिहास की एक श्रखंला आप लोगों के सामने पोस्ट दर पोस्ट साझा करना शुरू करेंगे और उसके बाद यह आप लोगों की व्यक्तिगत जिम्मेदारी बनती है कि आप अपने आप को इतिहास को सहेज कर रखें। मेरा काम यह नहीं है कि मैं आपको जबरदस्ती किसी विचारधारा की तरफ मोड़ दूं, मेरा काम आपसे सही तथ्य पेश करने का है उसके बाद आपकी तार्किक बुद्धि आपको किधर ले जाएगी उससे मुझे कोई खास फर्क पड़ने वाला नहीं है।
सबसे पहले तो संग्रहित इतिहास के स्रोतों की बात की जानी चाहिए। पंजाबी जट का इतिहास कभी भी भाटो के द्वारा संग्रहित नहीं किया गया, जबकि आधुनिक राजपूतों का इतिहास सदियों से भाटो और पंडो के द्वारा संग्रहित किया जाता रहा है ऐसे मैं पहली नजर में पंजाबी जट बिरादरी के इतिहास तक पहुंचने का हमारा रास्ता थोड़ा संकरा हो जाता है। लेकिन जैसे ही आप इसकी परतों को धीरे धीरे खोलना शुरू करते हैं, आपके सामने हर छोटी से छोटी घटना का क्रम तक सामने आता रहता है। ऐसा सिर्फ़ पंजाबी जट के बारे में ही नही है बल्कि सारे भारत के बारे में भी हुआ है। चूकि भाट या पंडे किसी राजा या बिरादरी पर निर्भर हुआ करते थे ऐसे में उनके द्वारा इतिहास को बढ़ा चढ़ाकर पेश करना एक मामूली स्वाभाविक कदम जैसा है वहीं दूसरी ओर पंजाबी जटों के केस में जहां भाटों और पंडों का इस्तेमाल ना के बराबर हुआ है,तथाकथित भारतीय ज्ञानियों के द्वारा इतिहास लिखा ही नहीं गया है तो फिर उसे बढ़ा चढ़ाकर पेश करने का कोई मतलब ही नहीं होता।
अपने जट इतिहास के अध्ययन के दौरान हमने पाया इतिहास को लेकर अंग्रेज नस्ल की समझ दुनिया के किसी और नस्ल से बहुत ज्यादा विकसित हो चुकी है, और अंग्रेज भारत में जटों की गुलामी करने तो आए नहीं थे कि पंजाबी जटों के दबाव में कुछ भी लिखते! ऐसे में उनको किसी लोभ या लालच दिखाकर कुछ भी नहीं लिखवाया जा सकता था। इसका मतलब यह हुआ कि उनकी लिखी बातों पर पूरा अविश्वास जताना, वह भी बिना किसी खास तर्कों के, ठीक नहीं है।
अंग्रेज यह काम अपने शौक के लिए करते थे और उन्होंने यह बखूबी किया भी। भारत में अगर सर विलियम जोंस ना आते तो भारत के पुराणों ग्रंथों की सटीक जानकारी शायद पश्चिम को कभी भी ना हो पाती, वो ऐसा करने वाले पहले थे। भारत में ज्ञान के ठेकेदार तो अशोक के शिलालेखों को पढ़ने तक के लिए बनारस से एक खास परिवार पर ही निर्भर थे, ऐसे में भारत के सामान्य जनमानस के ज्ञान के स्तर की तुलना सर विलियम जोंस से करना बेवकूफी ही कहलाएगी। उन्हीं की वजह से आज के भारत की भाषाओं का वर्गीकरण स्थापित हो गया है और जब वह कोई बात अपने तर्कों के साथ रखते हैं तो उन को नकारने के लिए भी कोई तर्क होना चाहिए ना कि कोई "दिव्य आवाहन"। ( https://en.wikipedia.org/wiki/William_Jones_(philologist) )
जट हिस्ट्री की सबसे तार्किक जानकारी जो बुजुर्गो की रिवायतों से मेल खाती है, उसका सबसे नजदीकी संस्करण सिर्फ अँगरेजी विद्वानों की हिस्ट्री में देखने को मिलता है। हमने अपने अध्ययन के दौरान सर विलियम जोंस, विलियम क्रुक, डेविड महल, गुरूमेल सिंह महल जैसे महान लेखकों द्वारा एकत्रित की गयी जानकारी साझा की जाएगी, साथ की मेरठ और मुरादाबाद के आजादी से पहले प्रकाशित 'Gazzate' की भी मदद ली गयी है, इन सभी के रेफरेंसेस अगले अध्यायों में आपको उचित रूप से मिलते रहेंगे |
मेहरबानी
टीम पंजाबी जट्ट यूनियन
आप लोग भी अगर कोई महत्वपूर्ण जानकारी साझा करना चाहे तो अपने बेशकीमती कमेंट जरूर दे, आप अगले अध्याय को पूरा करने में हमारी मदद भी कर सकते है, आपके सुझाव सर आखो पर :-
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अगले भाग में हम "जट्ट कौम का जेनेटिक वर्गीकरण, जट्ट नस्ल या जाति एक पड़ताल, पछादे जट्ट का जट्ट तालिका में स्थान " को इतिहास की किताबो के माध्यम से सामने रखेंगे, ब्लॉग पर अपनी आमद बने रखिएगा, कौम को आपकी जरुरत है |
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